Monday, 26 August 2019

वो ज़माना कितना प्यारा था, डाकिया घर तक आता था ,खुशिया और ख़ास हो जाती थी, जब वो पढ़ कर बतलाता था ...

वो ज़माना कितना प्यारा था, डाकिया घर तक आता था ,खुशिया और ख़ास हो जाती थी, जब वो पढ़ कर बतलाता था ....

ख़ाकी पोशाक पहने, याद है मुझे
साईकल पर ट्रिंग ट्रिंग करते हुए
पैगाम लेकर आते थे वो

एक ही झोले में ग़म और खुशिया लिये
दरवाज़े पर दस्तक देते थे
कभी राह चलते मिल जाते थे 
तो पूछते थे हम क्या हमारे घर के लिए कोई ख़त है?
और इसी बहाने कुछ उनसे बाते हो जाया करती
लिफाफे की ख़ुशबू प्यारी लगती थी
चिट्ठी में लगा हुआ गोंद दिल को लुभाता था

आज लेटर बॉक्स में चिड़िया के टूटे अंडे है
छिपकलियों के बसेरे है
डाकिये की जेट वाली साईकल पंक्चर है
अब उस झोले में उसके घर का सामान पड़ा रहता है

पोस्ट ऑफिस में अब भीड़ उतनी नहीं लगा करती
घर बैठे बैठे लैपटॉप कंप्यूटर से काम हो जाता है
माना कि इन सब से काम आसानी से हो जाता है
लेकिन डाकिये के साथ बनती थी यादें 
जब वो खुश होकर कहते थे आपका मनी आर्डर आया है

अब दुनिया बसर है चार दीवारी में
पीछे कमरे से दौड़ कर आगे कमरे के दरवाज़े तक आना
अब डाकिया आता नहीं, हाथ से गया ये बहाना
वो ज़माना कितना प्यारा था, डाकिया घर तक आता था
खुशिया और ख़ास हो जाती थी, जब वो पढ़ कर बतलाता था

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